इरफान खान , इलाहाबाद विश्ववद्यालय और फिल्म हासिल
Lets Begin With Me
ये रणबिजयवा, तुम हमार भौकाल हो बे! तुम फिलिम के किरदार नहीं इलाहाबाद पर वर्षों का शोध हो! गुरु बहुते याद आएगी तुम्हार!



इलाहाबाद यूनिवर्सिटी नाम ही काफी है अपने साहित्यिक इतिहास के लिए, लेकिन जब बात रुपहले पर्दे की आती है तो लोगों की जुबान पर एक ही नाम आता है फ़िल्म ‘हासिल
वर्ष 2003 में तिग्मांशु धूलिया के निर्देशन में प्रयागराज की सड़कों के अलावा इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और यूइंग क्रिश्चियन कॉलेज में फिल्माया गया था, इसी में छात्र नेता के रूप में खलनायक ‘रणविजय सिंह’ का किरदार निभाते हैं ‘इरफान खान’ जिसने आज 53 वर्ष की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया। खैर, ये फ़िल्म इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्रों के जीवंत किरदार को दर्शाता है।



जब यूइंग क्रिश्चियन कॉलेज के मेन बिल्डिंग के पास विद्यार्थियों का मजमा लगता है, तब एक बार फ़िल्म ‘हासिल’ का ज़िक्र जरूर होता है। बहस होती है कि इरफान इकोनॉमिक्स डिपार्टमेंट वाली सीढ़ी से छत पर गया होगा कि हिंदी डिपार्टमेंट वाले से, गोली कहाँ मारा था? गौरीशंकर ने भाषण कहां से दिया? इसी दौरान मजमे के दो लोगों को उस जगह पर भेजकर आंखों के कैमरे से एंगल बनाया जाता है। वहां के विद्यार्थियों के लिए ये फ़िल्म एक ऐसी बहस का दरिया है, जिसमें हर बैच का बन्दा आकर गोता लगाता है।




इसी बीच जब हिंदी डिपार्टमेंट की छत पर कोई बच-बचाकर चढ़ जाता है, तो खुद को रणविजय समझते हुए दो-चार डायलॉग मार ही देता था। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के मेन कैम्पस की बात की जाए तो वहां के छात्रों की पूरी की पूरी जिंदगी ही ‘हासिल’ है। आज भी जब आप कैम्पस में कुछ रोज गुजारेंगे तो गौरीशंकर की तरह तेज तर्रार भाषण, रणविजय की तरह रसूखदार, अनिरूद्ध की तरह प्रेमी, निहारिका की तरह फर्राटेदार और बद्री शंकर पांडेय वाली अंग्रेजी वाले जीवंत किरदार आपको आसानी से मिल जाएंगे।



दरअसल इलाहाबादियों के लिए हासिल उस कश्मकश को भी सुलझाने का प्रयास करता है, जब लड़के को ये समझ नहीं आता है कि इलाहाबाद में हम जोर कहां लगाए! प्यार के चक्कर में पढ़ना छोड़ दे कि घर भागें या भईया की जान बचाने के लिए मर मिट जाएं, ये वो वक्त होता है, जब लड़का सभी बंधनों से मुक्त होकर खुद को समझता और निखारता है।
इतना ही नहीं जब इलाहाबादी अपने शहर से दूर होते हैं तब ‘हासिल’ उन्हें इलाहाबाद में जिंदा होने का सबूत देता है. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के इतर पुलिस थानों में आपकी पकड़, छात्र नेता के सामने दरोगा जी का हकलाना, मंत्री जी के संपर्क पर भौकाल टाइट रखना, पतंग उड़ाते हुए किसी का आत्मविश्वास हिलाना, किताब के जंगलों में गुरिल्ला वार सिखाना, जर्दे के डिब्बे में बम बनाना एक कला है।



इस कला को रुपहले पर्दे पर जीवंत करने वाले हासिल का वो रणविजय वास्तविकता में तो नहीं रहा लेकिन आने वाली हर पीढ़ी के लिए जिंदा जरूर रहेगा। फ़िल्म का हर एक डायलॉग, हर एक किरदार इलाहाबाद यूनिवर्सिटी है।
इलाहाबाद की ठेठ बोली में रणविजय के सभी डायलॉग वहां के छात्र नेताओं और विद्यार्थियों की बोलचाल की भाषा है! फ़िल्म में रणविजय के कुछ डायलॉग जो हमेशा के लिए अमर हो गए।
“अबे वो स्याले गुंडे हैं… सरकारी गुंडे, हम क्रांतिकारी हैं… तुम लोग गोरिल्ला हो, गोरिल्ला वार किया जाएगा”

“तुमसे गोली वोली न चल्लई. मंतर फूंक के मार देओ साले”
“और जान से मार देना बेटा, हम रह गये ना, मारने में देर नहीं लगायेंगे, भगवान कसम।”
इरफान खान का ये डायलॉग भी उनकी संवाद अदायगी को अलग बनाता है।
ये रणबिजयवा, तुम हमार भौकाल हो बे! तुम फिलिम के किरदार नहीं इलाहाबाद पर वर्षों का शोध हो! गुरु बहुते याद आएगी तुम्हार!


प्रशांत सिंह
(लेखक पत्रकार है)
यह उनका निजी विचार है।

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